दोस्तों, एक बार गरुड़ जी भगवान श्री कृष्ण के पास आते हैं और कहते हैं, “हे प्रभु, आपने मुझे मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी अवस्थाओं के बारे में बताया है और मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले सभी क्रियाओं के विषय में भी बताया है। किंतु हे प्रभु, मेरे मन में एक शंका उत्पन्न हो रही है जिसका निवारण केवल आप ही कर सकते हैं।”
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “हे गरुड़, तुम्हारे मन में जो भी शंका हो, निसंकोच होकर पूछ लो। तुम्हारी हर शंका का समाधान करना मेरा कर्तव्य है।”
पक्षीराज गरुड़ कहते हैं, “हे प्रभु, अब मेरे मन में यह जानने की जिज्ञासा हो रही है कि मनुष्य को कौन से कार्य निर्वस्त्र होकर नहीं करने चाहिए। निर्वस्त्र होकर इन कार्यों को करने से मनुष्य को कौन सा पाप लगता है और इसके पीछे क्या कारण है?”
तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “हे पक्षीराज गरुड़, आज तुमने उत्तम प्रश्न किया है। तुम्हारे इस प्रश्न के उत्तर में समस्त मानव जाति का कल्याण छिपा हुआ है। तुमने यह सत्य ही कहा है कि मनुष्य को कभी निर्वस्त्र होकर भोजन, स्नान तथा शयन नहीं करना चाहिए। निर्वस्त्र होकर यह तीन काम करने से मनुष्य के जीवन पर अशुभ प्रभाव पड़ता है। तुम्हारे इन प्रश्नों के उत्तर देने से पूर्व मैं तुम्हें एक ब्राह्मण का प्राचीन इतिहास सुनाता हूं। इस प्राचीन कथा के माध्यम से तुम्हें तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो जाएंगे। इसलिए तुम इस कथा को ध्यान से अवश्य सुनो। इस कथा को सुनने मात्र से ही मनुष्य के पापों का नाश होता है।”
गरुड़ जी कहते हैं, “हे प्रभु, आपके मुख से इस कथा को सुनना मेरा सौभाग्य है। कृपया आप मुझसे वह कथा कहिए, मैं इसे ध्यान से पूरा सुनूंगा और तीनों लोकों में इसका प्रचार करूंगा।”
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “हे खग, अच्छा ठीक है। अब तुम इस कथा को ध्यान से सुनो, मैं तुम्हें वह कथा सुनाने जा रहा हूं। प्राचीन काल की बात है, मध्य देश में एक अत्यंत शोभायमान नगरी थी। उस नगरी में देव शर्मा नाम का एक विद्वान ब्राह्मण रहता था। उसने चारों वेदों का तथा समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया हुआ था। वह नित्य भगवत गीता का पठन किया करता था। देव शर्मा भगवान विष्णु का परम भक्त था और नित्य भगवान विष्णु की पूजा आराधना किया करता था। एक दिन देव शर्मा तीर्थ स्थान पर जाने के लिए घर से निकलता है। वह अपने साथ भोजन बनाने के लिए थोड़े से चावल ले लेता है और घने जंगलों से तीर्थ स्थान के लिए चलने लगता है। बहुत देर तक चलने के बाद देव शर्मा जंगल में स्थित एक जलाशय के समीप पहुंच जाता है। वह जलाशय अत्यंत सुंदर था, उसके चारों ओर हरियाली और सुंदर वृक्ष थे। फिर वह ब्राह्मण उस जलाशय से पानी पी लेता है और वहीं पर भोजन करके विश्राम करने का विचार करता है।
देव शर्मा अग्नि जलाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करने निकलता है। तभी उसे जलाशय के पास एक विचित्र दृश्य दिखाई पड़ता है। उस जलाशय के आसपास के सभी वृक्ष तथा पौधे हरे-भरे होते हैं किंतु केवल दो वृक्ष एकदम सूखे हुए और मृत दिखाई पड़ते हैं। उन वृक्षों को देखकर देव शर्मा को बड़ा आश्चर्य होता है। वे इस प्रकार से सोचने लगते हैं, “बड़ी ही विचित्र बात है। इस जंगल के सभी पेड़-पौधे हरे-भरे हैं किंतु ये दो पेड़ तो एकदम से सूखे हुए हैं। इन पर ना तो पत्ते हैं और ना ही छाल है। इन वृक्षों की ऐसी हालत किस कारण से हुई?” इतना सोचते हुए वह मन ही मन प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं, “चलो, अच्छी बात है। आग जलाने के लिए सूखी लकड़ी का इंतजाम भी हो गया।” देव शर्मा उन सूखे हुए वृक्षों के पास जाते हैं और उनकी टहनियां तोड़ने लगते हैं। तभी उन वृक्षों से एक आवाज आती है, “रुक जाओ ब्राह्मण, रुक जाओ। यह क्या अनिष्ट कार्य कर रहे हो?”
उस आवाज को सुनकर देव शर्मा चौंक जाते हैं और इधर-उधर देखने लगते हैं और कहते हैं, “कौन है? कौन आवाज दे रहा है? यहां पर तो मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ रहा है। तुम जो कोई भी हो, सामने आकर बात करो।” फिर से एक बार आवाज आती है, “हे ब्राह्मण देवता, हम तुम्हारे सामने ही हैं। आप ही हमें देख नहीं पा रहे हैं।” देव शर्मा कहते हैं, “हे भाई, तुम कौन हो और मेरे सामने कहां पर खड़े हो? मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है।” फिर से वह आवाज आती है, “हे ब्राह्मण देवता, आप जिस वृक्ष की टहनी तोड़ रहे हैं, मैं वही वृक्ष बात कर रहा हूं किंतु आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हो।”
देव शर्मा ब्राह्मण घबरा जाते हैं और इधर-उधर देखने लगते हैं तो उनकी दृष्टि उन दो पेड़ों पर पड़ती है। वह देखते हैं कि वे पेड़ मनुष्यों की वाणी में बात कर रहे हैं। इस विचित्र घटना को देखकर देव शर्मा को बड़ा आश्चर्य हो जाता है। वह कहने लगते हैं, “बड़ी ही विचित्र बात है। यह मृत पेड़ तो मनुष्यों की वाणी में बात कर रहे हैं। यह प्रभु की कैसी विचित्र लीला है।” देव शर्मा उन मृत वृक्षों से कहने लगते हैं, “हे वृक्षों, तुम कौन हो और तुम मनुष्यों की वाणी में कैसे बात कर रहे हो? और तुम्हें वृक्षों का शरीर कैसे मिला? तुम्हारे समीप इतना बड़ा जलाशय होने के बावजूद भी तुम सूखे हुए हो और बाकी सभी पेड़ पौधे हरे-भरे हैं। आखिर ऐसा कैसे संभव है?”
देव शर्मा की बात सुनकर वह पेड़ बोलने लगते हैं, “हे ब्राह्मण देवता, हमारी ऐसी दशा हमारे कर्मों के कारण ही हुई है। हमने पिछले जन्म में जो पाप किए थे, उसी का फल भुगत रहे हैं।”
देव शर्मा कहते हैं, “हे वृक्ष, कृपया आप मुझे आपके पिछले जन्म का वृतांत सुनाइए।” तब वह वृक्ष बोलने लगते हैं, “हे ब्राह्मण देवता, अब हम आपको हमारे पिछले जन्म का वृतांत सुनाते हैं। पूर्व काल में मैं धनेश्वर नाम का वैश्य था और यह मेरी पत्नी दुरमति थी। हम दोनों ही कांचीपुर में रहते थे। मेरा स्वभाव अत्यंत दुष्ट और क्रूर था। मैं लोगों को ब्याज देकर धन कमाया करता था। मेरी पत्नी भी अत्यंत क्रूर और दुष्ट स्वभाव की थी। उसने कभी अपने द्वार पर आए अतिथियों का सम्मान नहीं किया। हमने कभी दान धर्म भी नहीं किया और सदैव ही दीन और गरीब लोगों को सताया करते थे। उस समय हमारी कोई संतान नहीं थी।
हम दोनों ही संतान सुख प्राप्ति के लिए भोग विलास किया करते थे। हम निर्वस्त्र होकर स्नान किया करते थे और निर्वस्त्र होकर ही शयन किया करते थे। अनेक वर्षों तक भोग विलास करने पर भी हमें संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ। मैंने कभी अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध नहीं किया, कभी तर्पण नहीं किया, और उनके लिए कभी दान धर्म भी नहीं किया। जिस कारण से मेरे सभी पूर्वज रुष्ट हो गए। मेरा मन सदैव ही कामवासना से भरा हुआ रहता था। हम दोनों पति-पत्नी दिन-रात भोग विलास किया करते थे। निर्वस्त्र होकर ही स्नान, भोजन तथा शयन किया करते थे, जिससे समस्त देवी-देवता और पितृ भी हमसे रुष्ट हो गए। इस प्रकार से अनेक वर्ष बीत जाने के पश्चात हम पुत्र प्राप्ति की कामना से तीर्थ यात्रा पर निकले। रास्ते में जाते समय एक नदी किनारे हमने निर्वस्त्र होकर संबंध बनाया। दुर्भाग्य से उसी नदी में डूबकर हम दोनों की मृत्यु हो गई।
मृत्यु के पश्चात हमें ले जाने के लिए यमराज के दो दूत प्रकट हुए। वे दूत हमें पकड़कर यमपुरी ले गए। यमपुरी का दृश्य अत्यंत भयंकर था। यमराज विशाल काय सिंहासन पर बैठे हुए थे और उनके पास चित्रगुप्त बैठे हुए थे, जो यमपुरी में आए हुए प्राणियों का लेखा-जोखा निकाल रहे थे। जब मेरी बारी आई, तो यम के दूतों ने मुझे यमराज के सामने खड़ा कर दिया। फिर चित्रगुप्त यमराज से कहने लगे, “हे धर्मराज, इस वैश्य ने तो अपने जीवन में कभी कोई पुण्य का काम नहीं किया है। इसने अपने पूर्वजों का सदैव ही अनादर किया है। इसने सदैव ही निर्वस्त्र होकर स्नान, भोजन तथा शयन किया है, इसलिए यह केवल नरक जाने के ही योग्य है।” इस प्रकार से चित्रगुप्त ने मेरे कर्मों का लेखा- जोखा यमराज को बताया।
यमराज मुझे देखकर कहने लगे, “अरे दुष्ट, तूने तो कभी कोई पुण्य के काम नहीं किए हैं। तूने सदैव ही निर्वस्त्र होकर स्नान करके वरुण देवता का अपमान किया है, निर्वस्त्र शयन करके तूने अपने पूर्वजों को अपमानित किया है, तथा निर्वस्त्र भोजन करके तूने अन्न का भी अपमान किया है। इसलिए तुझे नरक में ही डाल दिया जाएगा।” इस प्रकार से यमराज ने अपने दूतों को आज्ञा देकर मुझे नरक में डाल दिया। मेरे पश्चात मेरी पत्नी को यमराज के सामने लाकर खड़ा किया गया। उसे देखकर चित्रगुप्त ने कहा, “हे धर्मराज, इस पापी स्त्री ने भी अपने पति की तरह कोई पुण्य का काम नहीं किया है। इसने भी निर्वस्त्र होकर ही स्नान, भोजन तथा शयन किया है। इसने समस्त देवी-देवताओं और पितरों का अपमान किया है। अतः यह भी नरक जाने के ही योग्य है।” इस प्रकार से यमराज ने हमारे पाप कर्मों को देखते हुए हम दोनों को ही नरक में डाल दिया।
नरक में सजा भुगतने के पश्चात हमें वृक्ष का शरीर प्राप्त हुआ। जैसे-जैसे हम बड़े हुए, हमारे सारे पत्ते भी गिर गए और हमारी छाल भी नष्ट हो गई। निर्वस्त्र कार्य करने के कारण इस जन्म में वृक्ष के रूप में हमारा वृक्ष रूपी शरीर भी नग्न हो गया और हम कष्ट भुगत रहे हैं। हे विप्र, कृपा करके हमें इस कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए कोई उपाय कीजिए।”
इस प्रकार से उन दोनों की बात सुनकर देव शर्मा को उन पर बड़ी दया आ गई। देव शर्मा उसी स्थान पर बैठकर भगवान विष्णु की प्रार्थना करने लगे और वृक्ष बने उस वैश्य और उसकी पत्नी की मुक्ति की कामना करने लगे। देव शर्मा कहने लगे, “हे प्रभु, मैं अपने भगवत गीता के पाठ का पुण्य इन वैश्य पति-पत्नी को प्रदान करता हूं। कृपा करके आप इन दोनों को मुक्ति प्रदान कीजिए।” इतना कहते ही वे दोनों वृक्ष धड़ाम से टूटकर जमीन पर गिर पड़े और उनके अंदर से अत्यंत सुंदर वस्त्र परिधान किया हुआ वैश्य और उसकी पत्नी प्रकट हुए। फिर उस स्थान पर भगवान विष्णु के दो पार्षद प्रकट हुए और उन दोनों को दिव्य विमान में बिठाकर दिव्य लोक को ले गए। इस प्रकार से भगवत गीता के पठन का पुण्य प्राप्त करके वह वैश्य और उसकी पत्नी दोनों को ही मोक्ष की प्राप्ति हुई।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, “हे पक्षीराज, मनुष्य को कभी भी निर्वस्त्र होकर भोजन, शयन और स्नान नहीं करना चाहिए। निर्वस्त्र स्नान करने से जल के देवता वरुण का अपमान होता है, निर्वस्त्र भोजन करने से अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा का अपमान होता है, और निर्वस्त्र शयन करने से समस्त पितृ गण रुष्ट हो जाते हैं। इसीलिए मनुष्य को निर्वस्त्र होकर यह तीन काम नहीं करने चाहिए।”
तो दोस्तों, इस प्रकार से भगवान श्री कृष्ण ने गरुड़ जी को महत्त्वपूर्ण ज्ञान दिया। आपको यह कथा कैसी लगी? कमेंट करके अवश्य बताएं। यदि जानकारी अच्छी लगी तो वीडियो को लाइक जरूर करें और कमेंट में जय श्री कृष्ण अवश्य लिखें। साथ ही चैनल को सब्सक्राइब करें। आप सभी का धन्यवाद।
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